भगवान श्री कृष्ण ने कैसे छोड़ी थी पृथ्वी किस प्रकार अपना शरीर त्याग किया जानिए?

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हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान श्री कृष्ण का जन्म द्वापर युग के अंत में हुआ था। भगवान श्री कृष्ण का इस पृथ्वी लोक पर जन्म लेने का उद्देश्य यह था कि समस्त पृथ्वी लोक से अधर्म का नाश करके पुनः धर्म की स्थापना। भगवान श्री कृष्ण को विष्णु का अवतार माना जाता है और यह हम सभी जानते हैं कि सृष्टि के पालन करता भगवान विष्णु ही है लेकिन क्या आपने कभी ये सोचा कि सृष्टि के पालन करता भगवान श्री कृष्ण की मृत्यु कैसे हुई अगर आपको इस सवाल का जवाब नहीं मालूम है तो आज किस पोस्ट में हम जानेंगे भगवान श्रीकृष्ण की मृत्यु से जुड़े रहस्य के बारे में –

 भगवान श्रीकृष्ण की मृत्यु कैसे हुई

यह तो हम सभी जानते हैं कि द्वापर युग में भगवान विष्णु श्री कृष्ण के रूप में अवतरित हुए थे लेकिन यह बात बहुत कम ही लोग जानते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण की मृत्यु त्रेता युग में भगवान विष्णु के राम अवतार का ही एक कारण था। पौराणिक कथाओं के अनुसार श्रीकृष्ण की मृत्यु का कारण महाभारत में कौरवों की पराजय थी। 18 दिन चले महाभारत युद्ध में दुर्योधन की मृत्यु के पश्चात जब युधिष्ठिर का राजतिलक हो रहा था तब अपने सौ पुत्रों की मृत्यु से दुखी उनकी माता गांधारी ने महाभारत युद्ध के लिए भगवान श्री कृष्ण को दोषी ठहराते हुए भगवान श्रीकृष्ण को श्राप दे दिया कि ” जिस तरह कौरव वंश का नाश हुआ है ठीक उसी प्रकार भी तुम्हारे वंश का भी नाश होगा “।

 महाभारत की मौसल पर्व में भगवान श्री कृष्ण के मृत्यु का वर्णन

महाभारत के मौसल पर्व अध्याय में भगवान श्री कृष्ण के मानव रूप का छोड़ने का वर्णन किया गया। इस अध्याय मौसम पर्व में वर्णित कथा के अनुसार भगवान श्री कृष्ण की मृत्यु महाभारत युद्ध समाप्त होने के 35 साल बाद हुई थी। महाभारत युद्ध के 35 साल बाद माता गांधारी के श्राप ने श्री कृष्ण की द्वारका नगरी पर अपना असर दिखाना शुरू कर दिया था। गांधारी के श्राप के प्रभाव को भाव कर भगवान श्री कृष्ण ने यदुवंशियों को द्वारका से लेकर प्रभास क्षेत्र आ गए। प्रभास क्षेत्र आकर भगवान श्री कृष्ण ने ब्राह्मणों को अन्न दान देकर यदुवंशियों को कहा कि अब तुम लोग मृत्यु का इंतजार करो। प्रभास क्षेत्र में प्रवास की कुछ दिनों बाद ही महाभारत युद्ध की चर्चा करते हुए सात्यकि और कृतवर्मा में विवाद हो गया।

 द्वापर युग में यदुवंशी का विनाश 

सात्यकि की ने गुस्से में आकर कृतवर्मा का सिर काट  दिया, इससे उनमें आपसी युद्ध भड़क उठा और वे समूहों में विभाजित होकर एक दूसरे का संहार करने लगे। इस लड़ाई में श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युमन और सात्यकि सहित सभी यदुवंशी मारे गए थे, केवल बबलू और दारूक ही बचे थे। यदुवंश के नाश के बाद भगवान श्री कृष्ण के जेष्ठ भाई बलराम समुद्र तट पर बैठकर एकाग्र चित्त होकर परमात्मा में लीन होकर अपने परमधाम को चले गए इस प्रकार से शेषनाग के अवतार बलराम जी अपने देह त्याग कर अपने स्वधाम विष्णु लोक को चले गए और वे वहां शेषनाग के रूप में परिवर्तित हो गए।

 जरा नाम के बहेलियां  ने भगवान श्री कृष्ण को मारा तीर 

बलराम जी के देह त्यागने के बाद एक दिन भगवान श्री कृष्ण पीपल वृक्ष के नीचे ध्यान की मुद्रा में लेटे हुए थे तब उस क्षेत्र में जरा नाम का बहेलिया आया। जरा एक शिकारी था और वें हिरण की शिकार की खोज में घूम रहा था। तब जरा को दूर से हिरण के मुख के सामान भगवान श्री कृष्ण के पैर का तलवा दिखाई दिया, बहेलिया ने बिना सोचे समझे वहीं से एक तीर छोड़ दिया जो श्री कृष्ण के तलवे में जाकर लगा। जब वह पास आकर देखता है तो उन्होंने देखा कि भगवान श्री कृष्ण के पैरों में तीर मार दिया हैं, यह देख कर उसे बहुत पश्चाताप होने लगा और हाथ जोड़कर भगवान श्री कृष्ण के पैरों में गिर गए और भी क्षमा मांगने लगे।

तब भगवान श्रीकृष्ण ने उस बहेलिये से कहा कि ” हे जरा तू डर मत तुमने कोई गलती नहीं की है यह मेरे ही पूर्व जन्म में किए हुए कर्मों का फल है। तब भगवान श्री कृष्ण ने जरा को बताया कि तुम मेरे रामावतार त्रेता युग में महाराज बाली हुआ करते थे जो मैंने ही उस समय तुम्हें एक पेड़ के पीछे छुप कर तुम्हारा वध किया था, ठीक उसी प्रकार आज तुमने भी पेड़ के पीछे से बिना देखे मुझे तीर मारा इसलिए तुमने कोई पाप नहीं किया है तुम मेरी कृपा से स्वर्ग में वास करोगे।

जरा के जाने के बाद वहां पर श्री कृष्ण का सारथी दारूक पहुंचा तब भगवान श्रीकृष्ण ने दारूक से कहा कि वे द्वारिका जाकर यह बताएं कि पूरा यदुवंश नष्ट हो चुका है और बलराम के साथ कृष्ण भी अपने स्वधाम लौट चुके हैं अतः सभी लोग द्वारिका छोड़ कर इंद्रप्रस्थ चले जाये क्योंकि जब मैं द्वारिका में नहीं रहूंगा तो समुद्र उसे डूबा देंगे इसलिए यह नगरी अब जलमग्न होने वाली है, भगवान श्री कृष्ण की बातों को सुनकर दारुक चले गए वहां से। इसके बाद उस स्थान पर सभी देवी देवताओं, यक्ष- किन्नर, देवलोक के सभी देवता गण एवं ऋषि मुनि, आदि पहुंचे और श्री कृष्ण की आराधना की। आराधना के बाद भगवान श्री कृष्ण ने अपने नेत्र बंद कर लिए और वे अपनी योगमाया के द्वारा अपने शरीर को त्याग कर बैकुंठ लोक चले गए।

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