मित्रों जैसा कि हम सभी जानते हैं कि हिंदू धर्म के अनुसार पृथ्वी लोक पर 84 लाख योनिया निवास करती है और उसी में से एक मनुष्य योनि भी है जिससे हम सभी का जन्म हुआ है। दोस्तों हिंदू धर्म के अनुसार मनुष्य के कर्मों के अनुसार उनके अगले जन्म निश्चित होती है और जब कोई प्राणी अपने पिछले जन्म में अधिक से अधिक सत्कर्म करता है तब उसका जन्म फिर मनुष्य योनि में होता है। आज की इस पोस्ट में हम जाने कि मनुष्य किस प्रकार जन्म लेता है जिसका वर्णन भागवत पुराण में किया गया है तो चलिए जानते हैं?
मनुष्य के जन्म का वर्णन
श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार जब भी कोई प्राणी मृत्यु के बाद मनुष्य योनि में जन्म लेता है तो वे सबसे पहले ईश्वर द्वारा निश्चित पुरुष के वीर्यकरण के रूप में स्त्री के उदर में प्रवेश करता है। वहां वे एक रात्रि में स्त्री के रज में मिलकर एक हो जाता है फिर पांच रात्रि में छोटे कण का रूप हो जाता है उसके बाद अंडे के रूप में परिवर्तित हो जाता है। इसी तरह एक महीने में उनके सर निकल आते हैं, दो मास में हाथ-पांव आदि अंगों का निर्माण हो जाता है और 3 मास में नाखून, त्वचा, अस्थि, स्त्री पुरुष के चिन्ह, तथा अन्य छिद्र उत्पन्न हो जाता है। और फिर 4 मास में उसमे मांस उत्पन्न होने लगता है फिर पांचवे महीने में गर्भ में पल रहे शिशु को भूख प्यास लगने लगती है और छठे मास में झिल्ली से लिपट कर कोख में घूमने लगता है उस समय माता के द्वारा ग्रहण किए गए अन्न जल आदि से उस बच्चे की भूख मिटने लगती है। वह सुकुमार तो होता ही है जब वहां के भूखे कीड़े उनके नोंचते है तब अत्यंत क्लेश के कारण वे क्षण-क्षण में अचेत हो जाता है।
इतना ही नहीं माता के खाए हुए कड़वे, तीखे, गरम, नमकीन, रूखे, खट्टे आदि पदार्थों का स्पर्श होने से उनके शरीर में पीड़ा होने लगती है। वह जीव माता के गर्भाशय में झिल्ली से लिपटा व आँतों से घिरा रहता है, उसका सर पीठ की ओर और पीठ और गर्दन कुंडलाकार मुड़े रहते हैं। माता के गर्भ में मनुष्य पिंजरे में बंद पक्षी के भांति पराधीन एवं अंगों को हिलाने डुलाने में भी असमर्थ रहता है इस अवस्था में उसे दिव्य शक्ति के द्वारा स्मरण शक्ति प्राप्त होती है जिसके बाद उसे पिछले जन्मों के कर्म याद आ जाते है फिर भी बेचैन होने लगता है। उसके बाद 7वां महीना आरम्भ होने पर उसमे ज्ञान शक्ति पनपने लगती है जिसकी वजह से वह एक स्थान पर नहीं रहना चाहता। तब स्थूल शरीर में बंधा हुआ वह जीव अत्यंत भयभीत होकर देववाणी से कृपा की याचना करते हुए हाथ जोड़कर उस प्रभु की स्तुति करने लगता है।
इसके बाद भागवत पुराण में बताया गया है देहधारी जीव दूसरी देह अर्थात मां के गर्भ के भीतर मल-मूत्र और रुधिर के कुएं में घिरा हुआ रहता है,उसके पाचन रस की ऊष्मा से गर्भ में मौजूद जीव का शरीर अत्यंत संतप्त होता रहता है। इन कष्टों के बारे में सोचते हुए जीव गर्भ से बाहर निकलने के प्रबल इच्छा लिए भगवान से प्रार्थना कर रहा होता है कि हे भगवान मुझे यहां से कब निकाला जाएगा। फिर गर्भ में मौजूद मनुष्य सोचता है कि पशु-पक्षी आदि अन्य जीव तो अपनी मूढ़ बुद्धि के अनुसार
अपने शरीर में होने वाले सुख-दुख आदि का अनुभव करते है किंतु भगवान में तो आपकी कृपा से साधन- संपन्न शरीर से युक्त हुआ हूं अतः आपकी दी हुई विवेक बुद्धि से अपने शरीर के बाहर और भीतर अहंकाररूपी आत्मा का अनुभव करता हूँ भगवान इस अत्यंत दुख से भरे हुए गर्भाशय में यधपि में बड़े कष्ट से रह रहा हूं तो भी इसेसे बाहर निकलकर संसारमय अंधकूप मे गिरने की मुझे बिल्कुल इच्छा नहीं है क्योंकि उसमें जाने वाले जीव को आपकी माया घेर लेती है जिसके कारण उसके शरीर में दृष्ट बुद्धि हो जाती है और उसके परिणामों से उसे फिर इस संसार चक्र में ही रहना होता है। इसलिए वे भगवान से बार-बार विनती करता रहता है कि उसके कष्ट से और इस संसार की मोह माया से जल्द-से-जल्द मुक्ति दे। फिर नौवें या दसवें महीने में जब मनुष्य अपनी माता के गर्भ से इस मृत्युलोक में आता है तब उसकी सारी स्मृति नष्ट हो जाती है वह विपरीत गति को प्राप्त होकर बार-बार और जोर जोर से रोने लगता है फिर माता-पिता के द्वारा उसका पालन पोषण किया जाता है।
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