राजा जनक ने किया नर्क का दर्शन – पद्मपुराण की कथा
राजा जनक को नर्क द्वार का दर्शन
(पद्मपुराण, पातालखण्ड, अध्याय १८-१९)
प्राचीन काल की बात है। राजा जनक ने जैसे ही योग बल से अपने शरीर का त्याग किया, वैसे ही एक सुन्दर सजा हुआ विमान आ गया और राजा दिव्य-देहधारी सेवको के साथ उस पर चढकर चले।
विमान, महाराज को संमनी पुरी के निकटवर्ती भाग से ले जा रहा था। जैसे ही विमान वहाँ से आगे बढ़ने लगा, वैसे ही बड़े ऊँचे स्वंर से राजा को हजारों मुखों से निकली हुई करुणध्वनि सुनायी पड़ी… . “पुण्यात्मा राजन्! आप यहां से जाइये नहीं, आपके शरीर को छूकर आने वाली वायु का स्पर्श पाकर हम यातनाओ से पीड़ित नरक के प्राणियों को बड़ा ही सुख मिल रहा है। “.
धार्मिक और दयालु राजा ने दुखी जीवों की करुण पुकार सुनकर दया के वश निश्चय किया कि, जब मेरे यहाँ रहने से इन्हें सुख मिलता है तो यम, मैं यहीं रहूंगा। मेरे लिये यही सुन्दर स्वर्ग है। . राजा वहीं ठहर गये।
तब यमराज ने उनसे कहा, यह स्थान तो इष्ट, हत्यारे पापियों के लिये है। . हिंसक, दूसरो पर कलंक लगाने वाले, लुटेरे, पतिपरायणा पती का त्याग करनेवाले, मित्रों को धोखा देने वाले, दम्भी, द्वेष और उपहास करके मन-वाणी-शरीरों, कभी भगवान्का स्मरण न करने वाले जीव यहाँ आते हैं और उन्हें नरकों मे डालकर मैं भयंकर यातना दिया करता हूँ। . तुम तो पुण्यात्मा हो, यहाँ से अपने प्राप्य दिव्य लोक में जाओं। .
तब फिर जनक ने यम से कहा, मेरे शरीर से स्पर्शं की हुई वायु इन्हें सुख पहुँचा रही है, तब मैं केसे जाऊं ? आप इन्हें इस दुख से मुक्त कर दें तो में भी सुखपूर्वक स्वर्ग में चला जाऊंगा। . यमराज ने [पापियों की ओर संकेत करके] कहा, ये कैसे मुक्त हो सकते है ? इन्होंने बड़े बड़े पाप किये हैं। . इस पापी ने अपने पर बिश्वास करने वाली मित्र पत्नी पर बलात्कार किया था, इसलिये इसको मैंनेे लोहशंकु नामक नरक में डाल कर दस हजार वर्षों तक पकाया है। . अब इसे पहले सूअर की और फिर मनुष्य की योनि प्राप्त होगी और वहाँ यह नपुंसक होगा। .
यह दूसरा बलपूर्वक व्यभिचारमें प्रवृत्त था। सौ वर्षों तक रौरव नरक में पीड़ा भोगेगा। . इस तीसरे ने पराया धन चुराकर भोगा था, इसलिये दोनों हाथ काट कर इसे पूयशोणित नामक नरक में डाला जायगा। . इस प्रकार ये सभी पापी नरक के अधिकारी हैं। तुम यदि इन्हें छुड़ाना चाहते हो तो अपना पुण्य अर्पण करों। .
एक दिन प्रातः काल शुद्ध मन से तुमने मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्रीरघुनाथ जी का ध्यान किया था और अकस्मात् रामनाम का उच्चारण किया था, बस वही पुण्य इन्हें दे दो। उससे इनका उद्धार हो जायगा। . राजा ने तुरंत अपने जीवन भर का पुण्य दे दिया और इसके प्रभाव से वे सारे प्राणी नरक यन्त्रणा से तत्काल छूट गये तथा दया के समुद्र महाराज जनक का गुण गाते हुए दिव्य लोक को चले गये। .
तब राजा ने धर्मराज से पूछा कि, हे धर्मराज.. जब धार्मिक पुरुषों का यहां आना ही नहीं होता, तब फिर मुझे यहां क्यों लाया गया है। . इस पर धर्मराज ने कहा, राजन् तुम्हारा जीवन तो पुण्यो से भरा है, पर एक दिन तुमने छोटा सा पाप किया था। . “एकदा तु चरन्ती गां वारयामास वै भवान्। तेन पापविपाकेन निरयद्वारदर्शनम्।”। . तुमने एक दिन चरती हुई गौ माता को रोक दिया था। उसी पाप के कारण तुम्हें नरक का दरवाजा देखना पड़ा। . अब तुम उस पाप से मुक्त हो गये और इस पुण्यदान से तुम्हारा पुण्य और भी बढ़ गया। तुम यदि इस मार्ग से न आते तो इन बेचारों का नरक से कैसे उद्धार होता ?
तुम जैसे दूसरों के दुख से दुखी होने वाले दया धाम महात्मा दुखी प्राणियों का दुख हरने मे ही लगे रहते हैं। . भगवान् कृपासागर हैं। पाप का फल भुगताने के बहाने इन दुखी जीवों का दुख दूर करने के लिये ही इस संयमनी के मार्ग से उन्होंने तुम को यहां भेज दिया है। तदनन्तर राजा धर्मराज को प्रणाम करके परम धाम को चले गये। . (पद्मपुराण, पातालखण्ड, अध्याय १८-१९)
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