रामायण में कुंभकरण से जुड़े अनसुने रहस्य एवं उनकी कथा?

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मित्रों वाल्मीकि जी द्वारा रचित रामायण हो या गोस्वामी तुलसीदास जी की, रामचरित्र मानस दोनों ही महाकाव्य भगवान श्री राम के चरित्र को बेहद सुंदर तरीके से दर्शाते हैं रामायण काल में एक से बढ़कर एक दिलचस्प पात्र देखने को मिलते हैं. जिनमें आप सब ने श्री राम के अतिरिक्त लक्ष्मण, भरत , हनुमान जी और रावण इत्यादि का बखुबी वर्णन सुना होगा लेकिन आज की हमारी इस प्रस्तुति में मुख्य पात्र कुंभकर्ण है.  रामायण में कुंभकर्ण एक ऐसा योद्धा थे जो सही गलत में अंतर जानते हुए भी अपने भाई रावण का साथ देना ही उचित समझे थे. आज हम यहां आपको कुंभकर्ण से जुड़ी कुछ ऐसी दिलचस्प और अनसुनी बातें बताएंगे जो शायद ही आपको पता हो.रामायण में कुंभकरण से जुड़े अनसुने रहस्य

रामायण में कुंभकरण से जुड़ी कथा?

रामायण एक ऐसा महाकाव्य है जो हमें हमेशा से ही धर्म के मार्ग पर चलना सिखाता है पर जहां धर्म की बात होती है वहीं दूसरी और अधर्म तो आता ही है और जहां अधर्म की बात आती है वहां चारों वेदों के ज्ञाता सर्व शक्तिशाली रावण का नाम जरूर ही शामिल होता है . कुंभकर्ण इसी रावण का छोटा भाई था इनकी माता का नाम कैकसी था जो कि राक्षस वंश से संबंधित थे और इनके पिता विश्रवा ब्राह्मण कुल के थे. इसीलिए उनकी संतानों में दोनों ही गुण विद्वान थे.

कुंभकर्ण अपने भाइयों में सबसे विशाल शरीर के साथ महा शक्तिशाली था उनका शरीर पर्वत के समान था वह एक बार में लाखों लोगों जितना भोजन ग्रहण कर लेता था उनमें कई हाथियों के समान बल था. एक बार की बात है तीनों भाई ब्रह्मदेव को प्रसन्न करने के लिए कठिन तपस्या करते हैं कुंभकर्ण स्वर्ग में अपना अधिपत्य प्राप्त करना चाहता था और इसी मानसा से उसने तपस्या शुरू की उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा देव को वरदान हेतु आना ही पड़ा.

वहीं दूसरी ओर सारे देवता इस बात से परेशान थे कि अगर कुंभकर्ण ने इंद्रासन मांग लिया तो सारे जगत में भोजन की कमी हो जाएगी तो इस समस्या से निजात पाने हेतु देव इंद्र मां सरस्वती से विनती करते हैं और मां सरस्वती उनकी प्रार्थना स्वीकार कर लेती है. जैसे ही कुंभकर्ण ब्रह्मदेव से इंद्रासन मांगने के लिए अपना मुंख खोलता है तो मां सरस्वती उनकी जीवा पर बैठ जाती है और उनकी जवान को पलट देती है तथा उनके मुख से इंद्रासन के स्थान पर निद्रासन निकल जाता है.

उसी वक्त ब्रह्मा जी उनको तथास्तु बोलकर वरदान दे देते हैं बाद में कुंभकर्ण और रावण को गलती का आभास होता है और वो वापिस से वरदान की कामना करते है पर ब्रह्मा जी कहते हैं कि वह वरदान तो वापस नहीं ले सकते पर यह जरुर हो सकता है की छह माह की नींद लेकर तुम 1 दिन के लिए जागोगे और पुनः छह माह के लिए सो जाओगे. इतना कहकर ब्रह्मा वहां से चले गए और कुंभकर्ण अपने वरदान के कारण अपने निंद्रा की अवस्था में चला गया.

 रामायण में कुंभकरण की अहम भूमिका 

जब कुंभकर्ण निद्रा में था तो उस वक्त रावण ने माता सीता का हरण कर लिया और रावण कि सेना प्रभु श्री राम से पूरी तरह हार रही होती है. यह सब देख कर रावण को अपने भाई कुंभकर्ण की याद आती है और वह विरुपाक्ष को आदेश देता है कुंभकरण को नींद से जगाया जाए. विरुपाक्ष कुंभकर्ण को जगाने के अथक प्रयास करते हैं और अंत में कामयाब हो ही जाते हैं.

कुंभकर्ण के पूछने पर वह उनको सारा व्यतीत सुनाते हैं यह सब सुनकर कुंभकर्ण रावण से मिलने तुरंत ही निकल पड़ते हैं और रावण को समझाने की कोशिश करते हैं कि उसने जिस का हरण किया है वह स्वयं मां लक्ष्मी है और जिनसे वह युद्ध के लिए सोच रहा है वह भगवान नारायण है. कुंभकर्ण के लाख कहने पर भी रावण नहीं माना कुंभकर्ण को धर्म नीति का पाठ पढ़ाते हुए कहा कि युद्ध और विपत्ति के घडी़ मे जो अपने भाई का साथ ना दे उससे बड़ा पापी और नीच कौन होगा.

रावण की बात सुनते ही कुंभकर्ण ने पुण: समझाने की कोशिश की ओर कहा कि केवल काम वासना के मत से उन्होंने माता सीता का हरण किया है अगर अपनी बहन शूर्पणखा का बदला ही लेना होता तो आप उचित रास्ता अपनाते या उस वक्त मुझे याद करते पर आपने कायरों जैसा चुपके हरण किया है. पर अंत में कुंभकर्ण अपने भाई की आज्ञा लेकर कहते हैं मेरी मृत्यु तो निश्चित है और भगवान के हाथों हो इससे बड़ा सौभाग्य क्या होगा और वह रणभूमि की ओर चल देते हैं.

 भगवान राम और कुंभकरण का युद्ध की कथा 

कुंभकर्ण वानर सेना को रोनते हुए वह आगे बढ़ते हैं वहां उनकी मुलाकात उनके छोटे भाई विभीषण से होती है और विभीषण उसको धर्म नीति समझाते हैं और वापस लौटने को कहते हैं, परंतु कुंभकर्ण अपने भाई की आज्ञा का पालन करने आए हैं और कहते हैं जो भाई कूल और देश से विषम परिस्थितियों में मुख मोड़ ले लेता है उससे बड़ा नीच कौन होगा और अतः वह कुंभकर्ण अपने भाई विभीषण से विनती करते हैं कि भाई मैं जानता हूं मेरा अंत होने वाला है पर राक्षस कुल में बस तूम अकेले चिरंजीवी बचोगे जिसको स्वयं ब्रह्मा का वरदान है तो मेरी अंतिम इच्छा यही है कि तुम अपने वंश का अंतिम संस्कार शास्त्रों के नीति के अनुसार करो.

इतना सब कह कर वो विभीषण को आशीर्वाद देकर फिर से युद्ध भूमि में आ जाते हैं तथा युद्ध करते हुए अंत में श्री राम के हाथो मृत्यु को प्राप्त करते हैं. भगवान राम उनके दोनों भुजाओं और उनके मस्तक को धड़ से अलग कर देते हैं और इस तरह इस महान राक्षस का अंत होता है जिसने अंतिम घड़ी में भी मौत का प्रवाह किए बिना अपने कुल अपने भाई के सम्मान के लिए अपने प्राण त्याग दिए और श्री राम के हाथों मृत्यु पाकर मोक्ष को प्राप्त किया.

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