समुद्र मंथन से उत्पन्न 14 रत्न
1. हलाहल (विष) –
समुद्र मंथन से सबसे पहले जल का हलाहल विष निकला, जिसकी ज्वाला बहुत तीव्र थी। हलाहल विष की ज्वाला से सभी देवता तथा दैत्य जलने लगे और उनकी चमक फीकी पड़ने लगी। इस पर सभी ने मिलकर भगवान शंकर की प्रार्थना की। देवताओं तथा असुरों की प्रार्थना पर महादेव शिव उस विष को हथेली पर रख कर उसे पी गये, किन्तु देवी पार्वती ने विष को उनके कण्ठ से नीचे नहीं उतरने दिया। अतः हलाहल विष के प्रभाव से शिव का कण्ठ नीला पड़ गया। इसीलिये महादेव को “नीलकण्ठ” भी कहा जाता है। हलाहल विष को पीते समय शिव की हथेली से थोड़ा-सा विष पृथ्वी पर टपक गया, जिसे साँप, बिच्छू आदि विषैले जन्तुओं ने ग्रहण कर लिया।
2. कामधेनु गाय –
हलाहल विष के बाद समुद्र मंथन से कामधेनु गाय बाहर निकली। वह अग्निहोत्र (यज्ञ) की सामग्री उत्पन्न करने वाली थी। इसलिए ब्रह्मवादी ऋषियों ने उसे ग्रहण कर लिया। कामधेनु का वर्णन पौराणिक गाथाओं में एक ऐसी चमत्कारी गाय के रूप में मिलता है, जिसमें दैवीय शक्तियाँ थीं और जिसके दर्शन मात्र से ही लोगो के दुःख व पीड़ा दूर हो जाती थी। यह कामधेनु जिसके पास होती थी, उसे हर तरह से चमत्कारिक लाभ होता था। इस गाय का दूध अमृत के समान माना जाता था। जैसे देवताओं में भगवान विष्णु, सरोवरों में समुद्र, नदियों में गंगा, पर्वतों में हिमालय, भक्तों में नारद, सभी पुरियों में कैलाश, सम्पूर्ण क्षेत्रों में केदार क्षेत्र श्रेष्ठ है, वैसे ही सभी गायों में कामधेनु सर्वश्रेष्ठ है।
3. उच्चैश्रवा घोड़ा –
समुद्र मंथन के समय तीसरे क्रम पर उच्चैश्रवा घोड़ा निकला। पौराणिक धर्म ग्रंथों और हिन्दू मान्यताओं के अनुसार इसे देवराज इन्द्र को दे दिया गया था। उच्चैश्रवा के कई अर्थ हैं, जैसे- जिसका यश ऊँचा हो, जिसके कान ऊँचे हों अथवा जो ऊँचा सुनता हो। इस घोड़े का रंग श्वेत (सफेद) थाl उच्चैश्रवा का पोषण अमृत से होता है और इसे घोड़ों का राजा कहा जाता है।
4. ऐरावत हाथी –
समुद्र मंथन के चौथे क्रम पर ऐरावत हाथी निकला। ऐरावत देवताओं के राजा इन्द्र के हाथी का नाम है। समुद्र मंथन से प्राप्त रत्नों के बँटवारे के समय ऐरावत को इन्द्र को दे दिया गया था। ऐरावत को शुक्लवर्ण और चार दाँतों वाला बताया गया है। रत्नों के बँटवारे के समय इन्द्र ने इस दिव्य गुणयुक्त हाथी को अपनी सवारी के लिए ले लिया था। इसलिए इसे “इंद्रहस्ति” अथवा “इंद्रकुंजर” भी कहा जाता है।
5. कौस्तुभ मणि –
समुद्र मंथन के पांचवे क्रम पर कौस्तुभ मणि प्रकट हुई जिसे भगवान विष्णु ने अपने ह्रदय पर धारण कर लिया। यह बहुत ही चमकदार थी और ऐसा माना जाता है कि जहाँ भी यह मणि होती है, वहाँ किसी भी प्रकार की दैवीय आपदा नहीं आती है।
6. कल्पवृक्ष –
समुद्र मंथन के छठे क्रम पर कल्पवृक्ष प्रकट हुआ। हिन्दू पौराणिक मान्यताओं के अनुसार यह वृक्ष सभी इच्छाओं की पूर्ति करने वाला वृक्ष था। देवताओं के द्वारा इसे स्वर्ग में स्थापित कर दिया गया। कई पौराणिक ग्रंथों में कल्पवृक्ष को “कल्पतरू” के नाम से संबोधित किया गया है।
7. रंभा –
समुद्र मंथन के सातवें क्रम पर “रंभा” नामक अप्सरा प्रकट हुई। वह सुंदर वस्त्र व आभूषण पहने हुई थीं और उसकी चाल मन को लुभाने वाली थी। वह स्वंय ही देवताओं के पास चलीं गई। बाद में देवताओं ने रंभा को इन्द्र को सौंप दिया जो उनके सभा की प्रमुख नृत्यांगना बन गई।
8. देवी लक्ष्मी –
समुद्र मंथन के आठवें क्रम पर देवी लक्ष्मी प्रकट हुई क्षीरसमुद्र से जब देवी लक्ष्मी प्रकट हुईं, तब वह खिले हुए श्वेत कमल के आसन पर विराजमान थीं। उनके श्री अंगों से दिव्य कान्ति निकल रही थी और उनके हाथ में कमल था। देवी लक्ष्मी को देखकर असुर, देवता, ऋषि आदि सभी चाहते थे कि लक्ष्मी उन्हें मिल जाएं, लेकिन लक्ष्मी ने स्वंय ही भगवान विष्णु का वरण कर लिया।
9. वारूणी –
समुद्र मंथन के नौवें क्रम पर वारूणी प्रकट हुई। भगवान विष्णु की अनुमति से इसे दैत्यों ने ले लिया। वास्तव में वारूणी का अर्थ “मदिरा” है और यही कारण है कि दैत्य हमेशा मदिरा में डूबे रहते थे।
10. चन्द्रमा –
समुद्र मंथन के दसवें क्रम पर “चन्द्रमा” प्रकट हुए जिन्हें भगवान शिव ने अपने मस्तक पर धारण कर लिया।
11. पारिजात वृक्ष –
समुद्र मंथन से ग्यारहवें क्रम पर “पारिजात वृक्ष” प्रकट हुआ। इस वृक्ष की विशेषता यह थी कि इसे छूने से ही थकान मिट जाती थी। यह वृक्ष भी देवताओं के हिस्से में चला गया।
12. पांचजन्य शंख –
समुद्र मंथन के बारहवें क्रम पर “पांचजन्य शंख” प्रकट हुआ। इसे भगवान विष्णु ने अपने पास रख लिया। इस शंख को “विजय का प्रतीक” माना गया है, साथ ही इसकी ध्वनि को भी बहुत ही शुभ माना गया है। विष्णु पुराण के अनुसार माता लक्ष्मी समुद्र की पुत्री हैं तथा शंख उनका सहोदर भाई है। अतः यह भी मान्यता है कि जहाँ शंख है, वहीं लक्ष्मी का वास होता है। इन्हीं कारणों से हिन्दुओं द्वारा पूजा के दौरान शंख को बजाया जाता है।
13. भगवान धन्वन्तरि –
समुद्र मंथन के सबसे अंत में हाथ में अमृतपूर्ण स्वर्ण कलश लिये श्याम वर्ण, चतुर्भुज रूपी भगवान धन्वन्तरि प्रकट हुए।अमृत-वितरण के पश्चात देवराज इन्द्र की प्रार्थना पर भगवान धन्वन्तरि ने देवों के वैद्य का पद स्वीकार कर लिया और अमरावती उनका निवास स्थान बन गयाl बाद में जब पृथ्वी पर मनुष्य रोगों से अत्यन्त पीड़ित हो गए तो इन्द्र ने धन्वन्तरि जी से प्रार्थना की वह पृथ्वी पर अवतार लें। इन्द्र की प्रार्थना स्वीकार कर भगवान धन्वन्तरि ने काशी के राजा दिवोदास के रूप में पृथ्वी पर अवतार धारण किया। इनके द्वारा रचित “धन्वन्तरि-संहिता” आयुर्वेद का मूल ग्रन्थ है। आयुर्वेद के आदि आचार्य सुश्रुत मुनि ने धन्वन्तरि जी से ही इस शास्त्र का उपदेश प्राप्त किया था।
14. अमृत –
समुद्र मंथन में प्रकट होने वाला चौदहवां और अंतिम रत्न “अमृत” था। अमृत का शाब्दिक अर्थ ‘अमरता’ है। भारतीय ग्रंथों में यह अमरत्व प्रदान करने वाले रसायन के अर्थ में प्रयुक्त होता है। यह शब्द सबसे पहले ऋग्वेद में आया है जहाँ यह सोम के विभिन्न पर्यायों में से एक है। अमृत को देखकर दानव आपस में लड़ने लगेl तब भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर छल पूर्वक देवताओं को अमृत पान करवा दिया।
जय महादेव।
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